भगवान जगन्नाथ की विश्व प्रसिद्धः विश्व का सबसे बड़ा सांस्कृतिक महोत्सव
-अशोक पाण्डेय
प्रतिवर्ष आषाढ शुक्ल द्वितीया को श्रीजगन्नाथ धाम
पुरी में भगवान जगन्नाथ की विश्वप्रसिद्ध रथयात्रा
अनुष्ठित होती है। यह सुदीर्घ और गौरवशाली
परम्परा लगभग एक हजार वर्ष पुरानी है। उस
पवित्रतम दिवस पर जगन्नाथ भगवान अपने भक्तों
से मिलकर सभी प्रकार के अहंकारों त्यागकर प्रत्येक
दिन अपने स्मरण करने,अपने दर्शन करने तथा अपने
वंदन करने का मित्रवत संदेश देंगे।भगवान जगन्नाथ
की विश्वप्रसिद्ध रथयात्रा को गुण्डीचायात्रा,
पतितपावन यात्रा,जनकपुरी यात्रा, घोष यात्रा,नव
दिवसीय यात्रा तथा दशावतार यात्रा भी कहते हैं।यह
रथयात्रा पुरी धाम में प्रतिवर्ष एक सांस्कृतिक
महोत्सव के रुप में मनाया जाता है क्योंकि भगवान
जगन्नाथ जगत के नाथ हैं।विश्व मानवता के स्वामी
हैं।विश्व मानवता के केन्द्र बिन्दु हैं।
वे अपने
दारुविग्रह रुप में सौर, वैष्णव, शैव, शाक्त,
गाणपत्य़, बौद्ध और जैन धर्मों के जीवंत विग्रह देव
समाहार हैं।वे कलियुग के एकमात्र पूर्णदारुब्रह्म हैं। वे
अवतार नहीं अपितु अवतारी हैं।वे 16 कलाओं से
सुसज्जित हैं।भगवान जगन्नाथ भक्तों की अटूट
आस्था एवं विश्वास के देव हैं जिनके रथयात्रा के
दिन रथारुढ स्वरुप के दर्शन मात्र से विश्व मानवता
को शांति,एकता तथा मैत्री का पावन संदेश मिलता
है। श्रीजगन्नाथ पुरी धाम वास्तव में एक धर्मकानन
है जहां पर आदिशंकराचार्य, चैतन्य, रामानुजाचार्य,
जयदेव, नानक,कबीर और तुलसी जैसे अनेक संत
महाप्रभु की इच्छा से आये और भगवान जगन्नाथ
की अलौकिक महिमा को स्वीकारकर उनके अनन्य
भक्त बन गये।
उस पवित्रतम दिवस पर जगन्नाथ भगवान अपने
भक्तों से मिलकर सभी प्रकार के अहंकारों को
त्यागकर प्रत्येक दिन अपने नाम के स्मरण
करने,भक्त को अपना काम करते हुए अपने दर्शन
करने तथा चौबीसों धण्टे अपने वंदन करने का
मित्रवत संदेश देंगे।गौरतलब है कि जिस
आदिशंकराचार्य ने भारत की चार दिशाओं में चार
धामों की स्थापना की वहां पर आद भी सभी
जगतगुरु शंकराचार्यों को प्रातः स्मरणीय,दर्शनीय और
वंदननीय का संदेश दिये हैं जो सबसे पहले जगतगुरु
के संबोधन से ही आरंभ होता है। भगवान जगन्नाथ
के प्रथमसेवक गजपति महाराजा से आरंभ होता है
उसके उपरांत ही जगत के नाथ से।
2025 की रथयात्रा आगामी 27जून को पड़ती
है।पद्मपुराण के अनुसार आषाढ माह के शुक्लपक्ष की
द्वितीया तिथि सभी कार्यों के लिए सिद्धियात्री होती
है।यह यात्रा भगवान जगन्नाथ के प्रति वास्तविक
श्रद्धा,भक्ति, प्रेम,आत्मनिवेदन,करुणा,विश्वास को
बनोये रखने तथा आत्मअहंकार के त्याग का
दिव्य,अलौकिक तथा अनूठा सांस्कृतिक महोत्सव है
जिसमें रथारुढ भगवान जगन्नाथ के दर्शन मात्र से
मानव-जीवन धारण करना सार्थक हो जाता
है।भवबंधन से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।रथयात्रा
भारतीय आत्मचेतना का शाश्वत प्रतीक है।यह यात्रा
पतितपावनी यात्रा होती है।
2025 की रथयात्रा के दिन 27जून को भोर में
श्रीमंदिर के रत्नवेदी से चतुर्धादेव विग्रहों को एक-
एककर पहण्डी विजय कराकर उनके अलग-अलग
सुनिश्चित रथों पर आरुढ कराया जाता है। प्रतिवर्ष
भगवान जगन्नाथ को नंदिघोष रथ पर आरुढ कराया
जाता है । बलभद्रजी को तालध्वज रथ पर तथा
सुभद्रा माता को तथा सुदर्शन जी को देवदलन रथ
पर। और सुदर्शन जी को आरुढ किया जाएगा।
रथयात्रा के दिन सबसे आगे तालध्वज रथ चलेगा।
उसके बाद देवदलन रथ तथा सबसे आखिर में
भगवान जगन्नाथ का रथ नंदिघोष रथ चलेगा।
प्रतिवर्ष तीनों नये रथ बनाये जाते हैं और पुराने रथों
को तोड दिया जाता है। रथों पर प्रतिवर्ष लगनेवाले
पार्श्वदेवगण आदि नये बनते हैं। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद
में रथ के उपयोग का वर्णन मिलता है। प्रतिवर्ष रथ
निर्माण के लिए काष्ठसंग्रह का पवित्र कार्य़
वसंतपंचमी से आरंभ होता है।
काष्ठसंग्रह दशपल्ला
के जंगलों से प्रायः होता है। रथनिर्माण का कार्य
वंशपरम्परानुसार भोईसेवायतगण अर्थात् श्रीमंदिर से
जुडे बढईगण ही करते हैं। इनको पारिश्रमिक के रुप
में पहले जागीर दी जाती थी लेकिन जागीर प्रथा
समाप्त होने के बाद उन्हें अब श्रीमंदिर की ओर से
पारिश्रमिक दिया जाता है। रथ-निर्माण में कुल
लगभग 205 प्रकार के सेवायतगण सहयोग करते हैं।
जिस प्रकार पांच तत्वों को योग से मानव शरीर का
निर्माण हुआ है ठीक उसी प्रकार से पांच
तत्वःकाष्ठ,धातु,रंग,परिधान तथा सजावटी सामग्रियों
के योग से रथों का निर्माण होता है । रथनिर्माण का
कार्य पुरी के गजपति महाराजा श्री श्री दिव्यसिंहदेवजी
के राजमहल श्रीनाहर के ठीक सामने रखखल्ला में
होता है। रथयात्रा के एक दिन पूर्व आषाढ शुक्ल
प्रतिपदा के दिन तीनों रथों को खीचकर लाकर
श्रीमंदिर के सिंहद्वार के सामने उत्तर दिशा की ओर
मुंह करके खडा कर दिया जाता है।
रथयात्रा के दिन
तीनों रथों को इसप्रकार सूक्ष्म कोण से अगल-बगल
ऐसे खडा किया जाता है कि रथों के रस्सों को
खीचने में बडदाण्ड अर्थात् श्रीमंदिर के सिंहद्वार के
ठीक सामने की चौडी और बडी सडक के बीचोंबीच ही
तीनों रथ चलें। रथ-संचालन के लिए झण्डियों को
हिला-हिलाकर निर्देश दिया जाता है। रथयात्रा तो
कहने के लिए मात्र एक दिन की होती है लेकिन सच
तो यह है कि यह सांस्कृतिक महोत्सव वैशाख मास
की अक्षय तृतीया से आरंभ होकर आषाढ माह की
त्रयोदशी तक चलता है। प्रतिवर्ष वसंत पंचमी से रथ-
निर्माण के लिए काष्ठसंग्रह का कार्य आरंभ हो जाता
है।
रथयात्रा के दिन देवविग्रहों को जिस प्रकार से
आत्मीयता के साथ सेवायतगण कंधे से कंधा
मिलाकर एक-एक पग आगे बढाते हुए पहण्डी विजय
कराकर लाते हैं और उनको रथारुढ करते हैं वह
सचमुच अलौकिक दृश्य होता है।उस वक्त का पहण्डी
के आगे-आगे परम्परागात बनाटी प्रदर्शन,गोटपुअ
नृत्य,ओडिशी नृत्यप्रदर्शन,रंगोली आदि की सजावट
देखते ही बनती है। चतुर्धादेवविग्रहों को रथारुढ कराने
के उपरांत पुरी गोवद्धन मठ के 145वें पीठाधीश्वर
जगतगुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानन्द सरस्वती
महाभाग अपने परिकरों के साथ गोवर्द्धन मठ से
आकर तीनों रथों पर एक-एककर जाकर रथों की
सुव्यवस्था आदि का अवलोकन करते हैं। चतुर्धा
देवविग्रहों को अपना आत्मनिवेदन प्रस्तुत करते हैं।
उसके उपरांत जगन्नाथ जी के प्रथम सेवक पुरी के
गजपति महाराजा श्री श्री दिव्यसिंहदेवजी अपने
राजमहल श्रीनाहर से पालकी में सवार होकर आते हैं
और तीनों रथों पर चंदनमिश्रित जल छीडकर
छेरापंहरा का अपना पवित्र दावित्व निभाते हैं। रथों
को उनके घोडों तथा सारथी के साथ जोडा जाता है। “
जय जगन्नाथ“के जयघोष के साथ रथयात्रा आरंभ
होती है। रथ खीचते समय रस्से दो प्रकार के उपयोग
में लाये जाते हैं। एक सीधे रस्से तथा दूसरे
घुमामवदार रस्से। तीनों रथों में चार-चार रस्से लगे
होते हैं जिनको विभिन्न चक्कों के अक्ष से विशेष
प्रणाली से लपेटकर और गांठ डालकर बांधा जाता है।
गुण्डीचा मंदिर जाने के रास्ते में भगवान जगन्नाथ
रास्ते में अपनी मौसी के हाथों से बना पूडपीठा ग्रहण
करते हैं।
वे सात दिनों तक गुण्डीचा मंदिर में विश्राम
करते हैं। सच कहा जाय तो विश्वमानवता के प्राण
जगत के नाथ समस्त मानवीय विकारों को दूर करने
के लिए और जीवन के शाश्वत मूल्यों को अपने
भक्तों को उनके व्यक्तिगत जीवन में अपनाने हेतु ही
प्रतिवर्ष अपनी विश्वप्रसिद्ध रथयात्रा पर आषाढ शुक्ल
द्वितीया को निकलते हैं।